त्योहारों के देश भारत में कई ऐसे पर्व हैं, जिन्हें काफी कठिन माना जाता है और इन्हीं में से एक है लोक आस्था का महापर्व छठ, जिसे रामायण और महाभारत काल से ही मनाने की परंपरा रही है। छठ वास्तव में सूर्योपासना का पर्व है। इसलिए इसे सूर्य षष्ठी व्रत के नाम से भी जाना जाता है। इसमें सूर्य की उपासना उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए की जाती है। ऐसा विश्वास है कि इस दिन सूर्यदेव की आराधना करने से व्रती को सुख, सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है और उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस पर्व के आयोजन का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी पाया जाता है। इस दिन पुण्यसलिला नदियों, तालाब या फिर किसी पोखर के किनारे पर पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
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दीपावली बीतने के साथ ही बिहार में छठ महापर्व की धूम होती है। कभी गांव के पोखरों-तालाबों तक ही सीमित रही आस्था की यह धारा दुनिया भर में ऐसी फैली है कि, श्रद्धा का महासागर बन गई है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को जब सूर्य देव विदा ले रहे होते हैं और सप्तमी तिथि को जब उनका आगमन होता है, तो कमर तक पानी में डूबी व्रती महिलाएं उनका अनुष्ठान करती हैं।
प्रकृति के इस महापर्व की आस्था इतनी है कि आज यह बिहार के गांवों से निकल महानगरों तक दिखाई देती है. देश की सीमाओं से परे दुनिया के कई कोने अब ऐसे हैं, जहां मिट्टी के चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ी है. आम की लकड़ी जल रही है और देसी घी में ठेकुआ छन कर निकाला जा रहा है. आस्था का यह लोक रंग इतना गहरा कैसे है?
यह पर्व प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन मनाया जाता है। छठ पर्व नहाए-खाए से शुरू होता है (Chhath Puja 2021 Puja Vidhi) और चौथे दिन उगते सूय्र को (Bhagwan Surya) अर्घ्य देने के साथ ही इसका समापन होता है। (Chhath Puja 2021 Date And Timing) चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में महिलाएं 36 घंटे तक निर्जला व्रत रखती हैं। यह व्रत संतान प्राप्ति और संतान की लंबी उम्र के लिए रखा जाता है।
अब तक छठ को लेकर कई तरह की कथाएं सामने आई होंगी, लेकिन एक अनोखी कथा ऐसी है, जिससे लोक भी अब धीरे-धीरे अंजान हो रहा है।
पुराणों के अनुसार एक थे राजा प्रियंवद। कहते हैं कि राजा को कोई संतान नहीं थी। ये बात सतयुग के आखिरी चरण की बताई गई है। तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया और राजा प्रियंवद की पत्नी मालिनी को यज्ञ आहुति के लिए बनाई गई खीर दी। रानी ने खीर खाई और इसके प्रभाव से उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति तो हुई लेकिन वह बच्चा मृत पैदा हुआ। प्रियंवद अपने मृत पुत्र के शरीर को लेकर श्मशान गया और पुत्र वियोग में अपने भी प्राण त्यागने लगा। तभी भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और उन्होंने प्रियंवद से कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। हे राजन तुम मेरा पूजन करो और दूसरों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से सच्चे मन से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी। कहा जाता है, कि तब से लोग संतान प्राप्ति के लिए छठ पूजा का व्रत करते हैं। कालांतर में यही देवी देवसेना, षष्ठी देवी या फिर छठी माता कहलाई जिनकी आज पूजा की जाती है।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा की थी और कहा जाता है कि कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे. वह प्रतिदिन कई घंटों तक पानी में खड़े रहकर सूर्य देव की अराधना किया करते थे और उन्हें अर्घ्य देते थे।
सबसे बड़ी बात है कि यह पर्व सबको एक सूत्र में पिरोने का काम करता है। इस पर्व में अमीर-गरीब, बड़े-छोटे का भेद मिट जाता है। सब एक समान एक ही विधि से भगवान की पूजा करते हैं। अमीर हो वो भी मिट्टी के चूल्हे पर ही प्रसाद बनाता है और गरीब भी, सब एक साथ गंगा तट पर एक जैसे दिखते हैं।